श्री राम और लक्ष्मण ने अपने अपने रोल बहुत सही चुने। श्रीराम विनय की मूर्ति बन गये। भगवन परशुराम का क्रोध मिटाने को पर्याप्त विनय-जल डालने के लिये। ऐसे में एक दूसरे तत्व की आवश्यकता होती है जो क्रोध को उद्दीप्त कर थका मारे। वह काम करने के लिये लखन लाल ने रोल संभाला।
मनुष्य मधुर वाणी और मधुर व्यवहार से जग जीत सकता है, श्री राम ने अपनी मधुर वाणी से भगवन परशुराम कि मनुहार किया
नाथ संभुधनु भंजनिहारा, होइहि केउ एक दास तुम्हारा ||अर्थात भगवन, शिव का धनुष तोड़ने वाला आपका कोई दास ही होगा,पर लक्ष्मण क्रोध हेतु व्यंग का ईंधन छिड़कते चले जाते हैं ।
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं, कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ||श्रीराम, भगवन परशुराम का क्रोध शान्त करने का सफल प्रयास करते हैं ।
एहि धनु पर ममता केहि हेतू,
लखन कहा हँसि हमरें जाना, सुनहु देव सब धनुष समाना ||
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी, अहो मुनीसु महा भटमानी ||
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू, चहत उड़ावन फूँकि पहारू ||
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाहीं ||
नाथ करहु बालक पर छोहू, सूध दूधमुख करिअ न कोहू ||
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना, तौ कि बराबरि करत अयाना ||
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं, गुर पितु मातु मोद मन भरहीं ||
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी, तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी ||
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा, कर कुठारु आगें यह सीसा ||
"How could you dared to break the bow of my master Lord Shiva,Now be ready to fight with me, this is my payback to Lord Shiva".
After listening to Parshuram, Ram was astonished, looked to Guru,"Lord Parshuram! You are revered; how can I fight with you, Guru?"
"Please forgive me, The bow broke without effort and knowledge,The pieces are lying here, please order the repair or its salvage".
"By this time you should recognize me, I am your dear follower,I am prepared to please you, as you wish; why should we suffer?"
और श्रीराम-लक्ष्मण के नरम गरम प्रयासों से; अन्तत: परशुराम शान्त हो विदा होते हैं ।
राम रमापति कर धनु लेहू, खैंचहु मिटै मोर संदेहू ||परशुराम के द्वारा बार-बार ललकारे जाने पर रामचन्द्र बोले, "हे भार्गव! मैं ब्राह्मण समझकर आपके सामने विशेष बोल नहीं रहा हूँ। किन्तु आप मेरी इस विनशीलता को परक्रमहीनता एवं कायरता समझकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। लाइये, धनुष बाण मुझे दीजिये।" यह कह कर उन्होंने भगवान् परशुराम के हाथ से धनुष बाण ले लिये। फिर धनुष पर बाण चढ़ाकर बोले, "हे भृगुनन्दन! ब्राह्मण होने के कारण आप मेरे पूज्य हैं, इसलिये इस बाण को मैं आपके ऊपर नहीं छोड़ सकता। परन्तु धनुष पर चढ़ने के बाद यह बाण कभी निष्फल नहीं जाता। इसका कहीं न कहीं उपयोग करना ही पड़ता है। इसलिये इस बाण के द्वारा आपकी सर्वत्र शीघ्रतापूर्वक आने-जाने की शक्ति को नष्ट किये देता हूँ।" श्री राम की यह बात सुनकर शक्तिहीन से हुये परशुराम जी विनयपूर्वक कहने लगे, "बाण छोड़ने से पूर्व मेरी एक बात सुन लीजिये। क्षत्रियों को नष्ट करके जब मैंने यह भूमि कश्यप जी को दान में दी थी तो उन्होंने मुझसे कहा था कि अब तुम्हें पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिये क्योंकि तुमने पृथ्वी का दान कर दिया है। तभी से गुरुवर कश्यप जी की आज्ञा का पालन करता हुआ मैं कभी रात्रि में पृथ्वी पर निवास नहीं करता। अतः हे राम! कृपा करके मेरी गमन शक्ति को नष्ट मत करो। मैं मन के समान गति से महेन्द्र पर्वत पर चला जाउँगा। चूँकि इस बाण का प्रयोग निष्फल नहीं जाता, इसलिये आप उन अनुपम लोकों को नष्ट कर दें जिन पर मेँने अपनी तपस्या से विजय प्राप्त की है। आपने जिस सरलता से इस धनुष पर बाण चढ़ा दिया है, उससे मुझे विश्वास हो गया है कि आप मधु राक्षस का वध करने वाले साक्षत विष्णु हैं।" परशुराम की प्रार्थना को स्वीकार करके राम ने बाण छोड़कर उनके द्वारा तपस्या के बल पर अर्जित किये गये समस्त पुण्यलोकों को नष्ट कर दिया। फिर परशुराम जी तपस्या करने के लिये महेन्द्र पर्वत पर चले गये। पूरा प्रसंग रामचरित मानस में तुलसीदासजी ने बड़े विस्तार से लिखा है।
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ, परसुराम मन बिसमय भयऊ ||
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता, छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता ||
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गए बनहि तप हेतू ||
मित्रों; हमें आये दिन नेगोशियेशन की ऐसी विकट स्थितियों से गुजरना पड़ता है। कभी कभी हमें अकेले को श्रीराम और श्रीलक्ष्मण के रोल एक में ही निभाने पड़ते हैं। हम सभी बिजनेस मैनेजमेण्ट पढ़ कर नहीं आये होते। हमारे काम तो तुलसीदास जी की श्रीराम-कथा ही आती है।
No comments:
Post a Comment