दिन भर जुता कोल्हू में, रात जीभर सोया
अरमान दिल के सारे, बुढापे तक कन्धों पर ढोया,
काज किया ना दिल का कोई,अन्त देखकर रोया
विचित्र विडंबना मानव की, मोह माया मे जीवन खोया
-पं प्रवीण शुक्ल
मनुष्य को शास्त्रो में करने के लिए चार पुरुसार्थ (धर्म , कर्म , अर्थ और मोक्ष) बताये गए है | इस पर क्रमश्: चलने का विधान है.......... (1).धर्म से कर्म (2).कर्म से अर्थ (3).अर्थ से संतुष्टि (कार्य करने के बाद जो भी बदले मे पारिश्रमिक मिलता है उसे ही तुष्टि या फ़ल कहते हैं) (4).संतुष्टि से संन्यास (सर्वस्य का न्यास्) के बाद मुक्ति की अवस्था आती है |जीवन यापन करने के लिये सिर्फ धर्म कर्म काफी नहीं होती है क्यूंकि,भाव-भक्ति के बिना जीवन शुष्क मरुभूमि सा है,
राघव तेरे संसार में, भातीं भातीं के लोग
हरि भजन बिसारि कै,चाहत हैं सुख भोग
-पं प्रवीण शुक्ल
हृदय में निच्छल और निर्मल भाव नहीं है तब तक इस जगत में भक्ति का भाव नहीं बन सकता है|
भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवें भाव
मन मैंगल होम रहा, कैसे आये जाय ॥
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव
भक्ति भाव इक रूप है, दोअ एक सुभाव॥
कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति का द्वार कि राई के दाने के दसवें भाग के बराबर संकरा होता है उसमें पागली हाथी की तरह मतवाला विशाल मन में कैसे प्रवेश कर सकता है। जब तक हृदय में निच्छल और निर्मल भाव नहीं है तब तक इस जगत में भक्ति का भाव नहीं बन सकता है। भक्ति के भाव तो रूप एक है पर उसके दो प्रकार के स्वभाव हैं-एक सकाम भाव दूसरा निष्काम भाव। जो भक्त सकाम भाव में स्थित हैं उसके लिये वह राई के बराबर है और वह उसमें प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि उसका मन तो अपने अंदर इच्छायें और आकांक्षाओं को पालकर मदमस्त हाथी हो जाता है। उसको निष्काम भक्ति का यह द्वार दिखाई ही नहीं देगा।
राम नाम रस पीजै,राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग बैठ नित,हरि चरचा सुण लीजै।
काम क्रोध मद लोभ मोह कूं,बहा चित्त से दीजै
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर,ताहि के रंग भीजै॥
प्रभु की कृपा से मेरे मन में, निच्छल और निर्मल भाव जागृत हो और मै अपने मुखारबिंदु से प्रभु श्रीराम के विमल यश का गान कर सकूं
पुनि पुनि कितनी हो कही सुनाई,हिय की प्यास बुझत न बुझाई।
सीता राम चरित अतिपावन,मधुर सरस अरु अति मनभावन।।
जय राम रमारमनं समनं,भव ताप भयाकुल पाहि जनं।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो,सरनागत मागत पाहि प्रभो।।
-गोस्वामी तुलसीदास
सुख कि बेला मे धन्यावाद, दुख कि बेला मे प्रार्थना, हर बेला मे स्मरण
sukh vele sukhria, dukh vele ardaas, har vele simran
... श्री राम शरणम गच्छामी
-पं प्रवीण शुक्ल
Sunday, April 5, 2009
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